बिल्लेसुर के निश्चय पर जमकर सत्तीदीन की स्त्री ने कहा, ‘‘ज्यादा होगा।’’
‘‘बिल्लेसुर खामोश रहे। मन में किस्मत को भला-बुरा कहते रहे।
शाम को जमादार आये।
भोजन तैयार था। स्त्री ने पैर धुला दिये। जमादार पाटे पर बैठे।
स्त्री दिन को मक्खियाँ उड़ाती हैं, रात को सामने बैठी रहती हैं।
जमादार भोजन करने लगे।
स्त्री ने कहा, ‘‘जमादार, बिल्लेसुर कहते हैं, अपना देस यहाँ से सात सौ कोस है, मैं कहती हूं, और होगा।
तुम्हारी किताब में तो सबकुछ लिखा है ?’’
सत्तीदीन को एक डायरी मिली थी।
डायरी भी वही बाबू लिखता था। लिखने के विषय के अलावा और क्या क्या उसमें लिखा है, सत्तीदीन उस बाबू से कभी-कभी पढ़ाकर समझते थे।
सत्तीदीन ने सोचा, महाराज ने ऊँचा पद तो दिया ही है, संसार को भी उनकी मुट्ठी में बेर की तरह डाल दिया है।
कई रोज वह किताब घर ले आये थे, और वहाँ जो कुछ सुना था, जितना याद था, जबानी स्त्री को सुनाया था।
बायें हाथ से मूछों पर ताव देते हुए मुँह का नेवाला निगलकर सत्तीदीन ने कहा, ‘‘सात सौ कोस इलाहाबाद तक पूरा हो जाता है।’’
उनकी स्त्री चमकती आँखों से बिल्लेसुर को देखने लगतीं
बिल्लेसुर हार मानकर बोले, ‘‘जब किताब में लिखा है तो यही ठीक होगा।’’